सामान्य मनुष्य के शौक़

हम जैसे सामान्य व्यक्ति के जीवन की कई व्यथाएं हैं ; 
हमारी जिंदगी के तंबू के चार बम्बू होते हैं
बाप के हिसाब से पढ़ाई...
बाप के अरमानों के अनुरूप सरकारी नौकरी का प्रयत्न..
बाप की नाक ऊंची कर देने वाली शादी...
बीवी बच्चों को बढ़िया जिंदगी देने का संघर्ष..

अब जिसकी गाँ$ में चार चार बम्बू ठसे हुए हों अपने जीने के लिए क्या जगह होगी भला.....
पर हॉबी होना तो मांगता है न ....
अब फोटोग्राफी, जानवर पालना, खेल, घूमना, पढ़ना (साहित्य वगैरह) अगर ऐसा कोई कीड़ा होता भी है तो हमें  उसके भीतर घुसने की जगह ही नहीं मिलती...

फोटोग्राफी इत्यादि का शौक़ तो जैसे पालना हाथी पालना होता है हम जैसों के लिए।
कुत्ता पालने की इक्षा मर जाती है के साला जो थोड़े पैसे मिलते हैं जिनसे दोस्तों के साथ दारू सुट्टा देखूं या कुत्ते को बिस्किट खिलाएं, 
खेल मोहल्ले के बगल के ग्राउंड में ईंट टिका खेली क्रिकेट भर होता है इसके आगे की औकात कभी बनती नहीं, 
साहित्य सुरेंद्र मोहन पाठक से चालू हो प्रेमचंद होते हुए मस्तराम पर खत्म..... अब मस्तराम हो या प्रेमचंद पढ़ना बाप से छिपकर ही है काहे कि अंग्रेज़ी की ग्रामर और गणित के अलावा कच्छु और पढ़ना घोर सामाजिक अपराध होता है बापता के विधान में....
हमारे जैसे मध्यम वर्गीय लडक़ों की मुख्य हॉबी #सेक्स ही बन जाती है!
दोस्तों के बीच चर्चा का मुख्य बिंदु "पटी या नहीं", "तेरे सामने वाली तो है ही इसी टाइप की"
"ली या नहीं", "तेरे बस का न हो तो बोल" 
अकेले हुए तो मोबाइल में लॉक फोल्डर से निकाल ऑनलाइन क्लासेज के नीले पीले वीडियो
सोने से पहले कल्पनाओं और उम्मीदों का वो गहन मन मंथन और उसमें तैरती छत पर कपड़े उठाते समय झुकी हुई पड़ोसन...

इतना गहन लगाव जीवन के किसी अन्य पहलू से नहीं होता..... इतना प्रयत्न भी नहीं... फिर इस से बेहतरीन मज़बूत हॉबी और क्या होगी
बस में चलते, क्लास रूम में पढ़ते, सड़क से गुजरते..... कहाँ नहीं चाहा तुमने...
कुर्ते के गले के बीच, साड़ी की खुली कमर, स्कर्ट में प्रतिबिम्ब बनाती दो टांगों के करीब, तुम्हारे शौक को पूरा करने को अवसर तो दिया ही हर दम जब मौका मिला तुमने.....
और फिर कहो कि हमारी हॉबी तो किताबें पढ़ना है....... तो .. झूठ ही है!!

ब्याह के बाद भी सेक्स तो मिल गया पर हॉबी पूरी न हुई..... काहे के बाप के अरमान ने अपनो को पलीता दे दिया..... फिर उस कमरे के अंधेरे में एक ही नंगी देह में न जाने कितनी और ढूंढने का प्रयत्न....... शौक बड़ी चीज है यार..... दिन भर की न जाने कितनी रोशनियों को वो अंधेरा नर्म कर डालता है....!

खैर  हम अकेले नहीं तो शर्माने का नहीं क्योंकि ये कॉमन मैन की सबसे कॉमन हॉबी है
बस एक बात का ख्याल रखनेका जिधर जिंदगी का सबसे ज्यादती टाइम केवल दो टांगों के बीच के बारे में चिंता करने वाले बहुसंख्यक हों...... उधर तू लद्दाख में क्या हुआ, दिल्ली में कौन जीता, मुम्बई में कितने मरे पर खोपड़ी मत भिड़ा...... इसी हॉबी के चलते इस देश में chuतिया शब्द अस्तित्व पाया..... बेदिमाग नहीं दिमाग को एक ही जगह पर टिका के रखने वाला...... और क्यों के ये हॉबी बेहद प्रधान हॉबी है देश की..... ये देश भी बंधा है इन्हीं चुतियापों से ...

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