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Showing posts from May, 2020

जिजीविषा

 # *जिजीविषा*  गर्मी की छुट्टी आते ही गांव नामक निरीह शब्द पर एक साथ कई हमले होतें हैं..पहला हमला होता है दिल्ली,नवेडा, लोधियाना से पधारे मोहन गुड्डू और सुग्गन,भोला,राधेश्याम,बब्बन,मुन्ना टाइप प्रजाति का. इस प्रजाति के लोग दो साल पहले गांव छोड़ चुके होतें हैं..गाँव छोड़ने की वजह ये होती है कि ठीक दो साल पहले किसी ममता,बबिता,कलावती,विमला से इनकी शादी हो गयी होती है। शादी बाद इनका दुलहिन प्रेम इतना फफाने लगता है कि ये रात को आठ बजे ही किल्ली लगाकर सो जातें हैं, और सुबह दस बजे तब उठतें हैं,जब इनके बाबूजी खेत में गोबर फेंकने के बाद, दतुवन-कुल्ला करके गाय को लेहना देने के पश्चात नहा रहे होतें हैं.वहीं हैण्डपम्प चलाती गुड़िया से धीरे से पूछते हैं.. "गुड्डआ उठले ना रे अभी.. नौ बज गइल" ? गुड़िया धीरे से मुड़ी हिलाकर "ना" में जबाब देती है.इस गोपनीय जानकारी के बाद इनके बाबूजी के मुख से  उत्प्रेक्षा,श्लेष,यमक अनुप्रास के रस में लिपटा,लक्षणा,व्यंजना की धधकती आग में पका,जो दिव्य और ओजपूर्ण वाक्य निकलता है,वो एस्थेटिक्स के नवेदितों,पिंगल के पढ़वइयों,ग़ज़ल के गवइयों के साथ हिंदी के स्वनाम

प्रभु श्री राम चन्द्र जी का केवट से संवाद एवम् भगवान श्री विष्णु एवम् कछुए से इस प्रसंग की प्रासंगिकता

क्षीर सागर में भगवान विष्णु शेष शैया पर विश्राम कर रहे हैं और लक्ष्मीजी उनके पैर दबा रही हैं । विष्णुजी के एक पैर  का अंगूठा शैया के बाहर आ गया और लहरें उससे खिलवाड़ करने लगीं ।  . क्षीरसागर के एक कछुवे ने इस दृश्य को देखा और मन में यह विचार कर कि मैं यदि भगवान विष्णु के अंगूठे को अपनी जिव्ह्या से स्पर्श कर लूँ तो मेरा मोक्ष हो जायेगा,यह सोच कर उनकी ओर बढ़ा ।  . उसे भगवान विष्णु की ओर आते हुये शेषनाग ने देख लिया और कछुवे को भगाने के लिये जोर से फुँफकारा । फुँफकार सुन कर कछुवा भाग कर छुप गया ।  . कुछ समय पश्चात् जब शेषजी का ध्यान हट गया तो उसने पुनः प्रयास किया । इस बार लक्ष्मीदेवी की दृष्टि उस पर पड़ गई और उन्होंने उसे भगा दिया ।  . इस प्रकार उस कछुवे ने अनेकों प्रयास किये पर शेष नाग और लक्ष्मी माता के कारण उसे  सफलता नहीं मिली । यहाँ तक कि सृष्टि की रचना हो गई और सत्युग बीत जाने के बाद त्रेता युग आ गया ।  . इस मध्य उस कछुवे ने अनेक बार अनेक योनियों में जन्म लिया और प्रत्येक जन्म में भगवान की प्राप्ति का प्रयत्न करता रहा । अपने तपोबल से उसने दिव्य दृष्टि को प्राप्त कर लिया था ।  . कछुव

शंख का पौराणिक महत्व और पांचजन्य शंख की कुछ अबूझ पहेलियां तथा घरों में शंख रखने का महत्व

महाभारत में कई प्रकार के शंखों का वर्णन है , श्री कृष्ण के पास पाञ्चजन्य, अर्जुन के पास देवदत्त, युधिष्ठिर के पास अनंतविजय, भीष्म के पास पोंड्रिक, नकुल के पास सुघोष, सहदेव के पास मणिपुष्पक था। सभी के शंखों का महत्व और शक्ति अलग-अलग थी।   शंखों की शक्ति और चमत्कारों का वर्णन महाभारत और पुराणों में मिलता है। शंख को विजय, समृद्धि, सुख, शांति, यश, कीर्ति और लक्ष्मी का प्रतीक माना गया है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि शंख नाद का प्रतीक है। शंख ध्वनि शुभ मानी गई है। हालांकि प्राकृतिक रूप से शंख कई प्रकार के होते हैं। इनके 3 प्रमुख प्रकार हैं- दक्षिणावृत्ति शंख, मध्यावृत्ति शंख तथा वामावृत्ति शंख। इन शंखों के कई उप प्रकार होते हैं।  पाञ्चजन्य शंख का रहस्य :  पाञ्चजन्य बहुत ही दुर्लभ शंख है। समुद्र मंथन के दौरान इस पाञ्चजन्य शंख की उत्पत्ति हुई थी। समुद्र मंथन से प्राप्त 14 रत्नों में से 6वां रत्न शंख था। अपने गुरु के पुत्र पुनरदत्त को एक बार एक दैत्य उठा ले गया। उसी गुरु पुत्र को लेने के लिए वे दैत्य नगरी गए। वहां उन्होंने देखा कि एक शंख में दैत्य सोया है। उन्होंने दैत्य को मारकर शंख को अपने प

महर्षि वाल्मीकि रामायण के रचयिता

 हुआ था। ऋषि मुनि बनने से पूर्व वे एक कुख्यात डाकू थे। उनका नाम रत्नाकर था। मनुस्मृति के अनुसार वे प्रचेता, वशिष्ठ, नारद, पुलस्त्य आदि के भाई थे। उनके बारे में एक और किंवदन्ती है कि बाल्यावस्था में ही उनको एक निःसंतान भीलनी ने चुरा लिया था। भीलनी ने रत्नाकर का बड़े ही प्रेम से लालन-पालन किया। भीलनी के जीवनयापन का मुख्य साधन दस्यु कर्म का था। भीलनी बुरे कर्म और लूट-पाट से रत्नाकर का पालन-पोषण कर रही थी। इसका रत्नाकर पर काफी प्रभाव पड़ा और उन्होंने भी बड़े होकर अपने भरण-पोषण के इसे ही अपना लिया था। रत्नाकर को लगा लूट-पाट हत्या ही उनका कर्म है। जब वाल्मीकि एक तरूण युवा हो गए तब उनका विवाह उसी समुदाय की एक भीलनी से कर दिया गया। विवाह बाद रत्नाकर कई संतानों के पिता बने और उन्हीं के भरण-पोषण के लिए उन्होंने पाप कर्म को ही अपना जीवन मानकर और भी अधिक घोर पाप करने लगे। एक बार उन्होंने वन से गुजर रहे साधुओं की मंडली को ही हत्या की धमकी दे दी। साधु के पूछने पर उन्होंने इस बात को स्वीकार किया कि वे यह सब अपने पत्नी और बच्चों के लिए कर रहे हैं। तब साधु ने उन्हें ज्ञान दिया और कहा कि जो भी पाप

वीर एकलव्य आधुनिक तीरंदाजी खेल की पद्य ति का जन्मदाता

एकलव्य महाभारत का एक पात्र है। वह राजा हिरण्य धनु नामक निषाद के पुत्र थे। एकलव्य का मूल नाम अभिद्युम्न था। एकलव्य को अप्रतिम लगन के साथ स्वयं सीखी गई धनुर्विद्या और गुरुभक्ति के लिए जाना जाता है। पिता की मृत्यु के बाद वह श्रृंगबेर राज्य के शासक बने। अमात्य परिषद की मंत्रणा से उनहोने न केवल अपने राज्य का संचालन किया , बल्कि निषादों की एक सशक्त सेना गठित कर के अपने राज्य की सीमाओँ का विस्तार किया। महाभारत में वर्णित कथा के अनुसार एकलव्य धनुर्विद्या सीखने के उद्देश्य से द्रोणाचार्य के आश्रम में आया किन्तु निषादपुत्र होने के कारण द्रोणाचार्य ने उसे अपना शिष्य बनाना स्वीकार नहीं किया। निराश हो कर एकलव्य वन में चला गया। उसने द्रोणाचार्य की एक मूर्ति बनाई और उस मूर्ति को गुरु मान कर धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। एकाग्रचित्त से साधना करते हुये अल्पकाल में ही वह धनु्र्विद्या में अत्यन्त निपुण हो गया। एक दिन पांडव तथा कौरव राजकुमार गुरु द्रोण के साथ आखेट के लिये उसी वन में गये जहाँ पर एकलव्य आश्रम बना कर धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था। राजकुमारों का कुत्ता भटक कर एकलव्य के आश्रम में जा पहुँच

ऋषि,मुनि,साधु,संत एवम् सन्यासी

#' ऋषि ’ वैदिक-संस्कृत भाषा का शब्द है। यह शब्द अपने आप में एक वैदिक परंपरा का भी ज्ञान देता है और स्त्री-पुरुष के समान अधिकारों को भी बताता है। वैदिक ऋचाओं के रचयिताओं को ऋषि कहा गया है। वैदिक कालीन सभी ऋषि गृहस्थ थे। ऋषि गृह त्यागी अथवा सन्यस्त नहीं थे। ऋषि शब्द किसी भी ऐसे विद्वान के लिए प्रयुक्त होता था जो कि नियमित गुरु-शिष्य अथवा वंशानुगत परंपरानुसार वैदिक ऋचाओं की रचना कर रहा था। कालान्तर में ऋषि शब्द का प्रयोग विस्त्रित अर्थों में प्रयुक्त होने लगा। ऋषि पर क्रोध, अहंकार, ईर्ष्या आदि की कोई रोकटोक नहीं है और न ही कोई विशेष संयम का उल्लेख है। # मुनि शब्द के अर्थ को जानने के लिए पहले तीन शब्दों को समझना होगा। चित्र, मन और तन ये तीन शब्द मन्त्र और तन्त्र से संबंधित हैं। चित्र शब्द के अनेक अर्थ हैं  ऋग्वेद में आश्चर्य से देखने के लिए इसका प्रयोग हुआ है। जो उज्जवल है, आकर्षक है और आश्चर्यजनक है; वह चित्र है। इसलिए  लगभग सभी सांसारिक वस्तुएँ चित्र में समा जाती हैं। मन के भी बहुत से अर्थ हैं किंतु मुख्य अर्थ तो बौद्धिक चिंतन से संबंधित ही है। इसलिए ‘मंत्र’ शब्द का जन्म मन से हुआ औ

हिन्दू धर्म के संस्कार

हिंदू धर्म में व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक 16 कर्म अनिवार्य बताए गए हैं। इन्हें 16 संस्कार कहा जाता है।इनमें से हर एक संस्कार एक निश्चित समय पर किया जाता है। कुछ संस्कार तो शिशु के जन्म से पूर्व ही कर लिए जाते हैं, कुछ जन्म के समय पर और कुछ बाद में।चलिए अब आपको बताते हैं कौन-से हैं वे 16 संस्कार... महर्षि वेदव्यास स्मृति शास्त्र के अनुसार- गर्भाधानं पुंसवनं सीमंतो जातकर्म च। नामक्रियानिष्क्रमणेअन्नाशनं वपनक्रिया:।। कर्णवेधो व्रतादेशो वेदारंभक्रियाविधि:। केशांत स्नानमुद्वाहो विवाहाग्निपरिग्रह:।। त्रेताग्निसंग्रहश्चेति संस्कारा: षोडश स्मृता:। (व्यासस्मृति 1/13-15) 1. गर्भाधान संस्कार यह ऐसा संस्कार है, जिससे योग्य, गुणवान और आदर्श संतान प्राप्त होती है। शास्त्रों में मनचाही संतान के लिए गर्भधारण किस प्रकार करें? इसका विवरण दिया गया है। 2. पुंसवन संस्कार यह संस्कार गर्भधारण के दो-तीन महीने बाद किया जाता है। मां को अपने गर्भस्थ शिशु की ठीक से देखभाल करने योग्य बनाने के लिए यह संस्कार किया जाता है। पुंसवन संस्कार के दो प्रमुख लाभ- पुत्र प्राप्ति और स्वस्थ, सुंदर गुणवान संतान